පැවැත්මේ සහ සදාචාරයේ මූලාරම්භය සඳහා එක් පරම සත්යයක් පැවතීමට ඇති සාක්ෂි මොනවාද?

एक व्यापक वास्तविकता के अस्तित्व का न होना, जिसे बहुत-से लोग अपनाए हुए हैं, यह अपने आप में ऐसी चीज़ पर ईमान लाना है, जो सही भी है और ग़लत भी। वे इसे दूसरों पर लागू करने की कोशिश करते हैं। वे व्यवहार का एक मानक अपनाते हैं और सभी को इसका पालन करने के लिए मजबूर करते हैं। ऐसा करके, वे उसी चीज़ का उल्लंघन कर रहे होते हैं, जिसे वे धारण करने का दावा करते हैं। यह एक विरोधाभासी मत है।

एक व्यापक सत्य के अस्तित्व के प्रमाण इस प्रकार हैं :

अंतरात्मा : (आंतरिक आवाज़) नैतिक दिशानिर्देश के नियमों का संग्रह, जो मानव व्यवहार को नियमित करता है। यह दरअसल इस बात का प्रमाण है कि विश्व एक विशेष रास्ते पर चलता है, जिसमें सही भी है और ग़लत भी। यह नैतिक उसूल कुछ सामाजिक पालनों का नाम है, जिनका विरोध करना या उन्हें पूछे जाने का विषय बनाना संभव नहीं है। वे सामाजिक वास्तविकताएं हैं, जिनके अंतर्वस्तु या अर्थ से बेपरवाह होना समाज के लिए संभव नहीं है। जैसा कि माँ-बाप का सम्मान न करने या चोरी करने को हमेशा घृणित व्यवहार माना जाता है। उसे कभी भी सच या सम्मान बताकर उचित ठहराया नहीं जा सकता। यह बात सामान्य रूप से हर समय सभी संस्कृतियों पर लागू होती है।

विज्ञान : चीज़ों की वास्तविकता को जानने को विज्ञान कहते हैं। विज्ञान, ज्ञान और निश्चितता का नाम है। इसलिए, विज्ञान अनिवार्य रूप से इस विश्वास पर निर्भर है कि दुनिया में वस्तुनिष्ठ तथ्य हैं, जिनकी खोज करना एवं जिनको साबित करना संभव है। यदि साबित तथ्य न हों तो क्या अध्ययन किया जा सकता है? किसी को कैसे पता चलेगा कि वैज्ञानिक निष्कर्ष वास्तविक हैं? वास्तव में, वैज्ञानिक आधार स्वयं व्यापक तथ्यों के अस्तित्व पर आधारित हैं।

धर्म : दुनिया के सभी धर्म जीवन की एक अवधारणा, अर्थ और परिचय देते हैं। यह गहनतम प्रश्नों के उत्तर को पाने की अति मानवीय इच्छा का परिणाम है। धर्म के माध्यम से, मनुष्य अपने स्रोत, अंजाम तथा आंतरिक शांति की खोज करता है, जिसे इन उत्तरों को तलाश किए बिना नहीं पाया जा सकता है। धर्म का पाया जाना अपने आप में इस बात का सबूत है कि इंसान केवल विकसित जानवर से बढ़कर है। साथ ही इस जीवन का एक उच्च लक्ष्य है। यह एक सृष्टिकर्ता के अस्तित्व का प्रमाण भी है, जिसने हम सब को एक उद्देश्य के तहत पैदा किया है और इंसान के हृदय में उसकी जानकारी प्राप्त करने की इच्छा रख दी है। वास्तव में, सृष्टिकर्ता का अस्तित्व ही परम सत्य का मानक है।

तर्क : सभी मनुष्यों के पास सीमित ज्ञान है और सीमित धारणा के दिमाग हैं, इसलिए अनियत रूप से नकारात्मक कथनों को अपनाना तार्किक रूप से असंभव है। कोई तार्किक रूप से नहीं कह सकता कि ''पूज्य नहीं है'', क्योंकि किसी व्यक्ति को ऐसा कथन कहने के लिए उसके पास शुरू से लेकर अंत तक पूरे ब्रह्मांड का पूर्ण ज्ञान होना चाहिए। इसलिए यह मुश्किल है। अपने सीमित ज्ञान की बुनियाद पर तार्किक रूप से इंसान अधिक से अधिक यही कह सकता है कि मैं अल्लाह के अस्तित्व पर ईमान नहीं रखता हूँ।

अनुकूलता : परम (अनियत) सत्य का इनकार हमें ले जाता है :

विरोधाभास की ओर, हमारे दिल के सही यक़ीन के साथ तथा जीवन के अनुभवों और वास्तविकता के साथ।

अस्तित्व में किसी भी चीज़ के सही या ग़लत न होने की ओर। उदाहरण के तौर पर अगर मेरे लिए सही बात सड़क के नियमों की अनदेखी करना है, तो मैं अपने आसपास के लोगों के जीवन को खतरे में डालूंगा। इस प्रकार, मनुष्यों के बीच सही और गलत के मानकों में टकराव होगा और इस तरह किसी भी चीज़ के बारे में निश्चित होना असंभव हो जाएगा।

एक व्यक्ति को अपनी इच्छा के अनुसार अपराध करने की पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त हो जाएगी

और क़ानून बनाना या न्याय स्थापित करना मुश्किल हो जाएगा।

पूर्ण स्वतंत्रता वाला व्यक्ति एक बदसूरत प्राणी बन जाता है और जैसा कि यह सिद्ध हो चुका है और इसमें किसी प्रकार का कोई संदेह नहीं है कि इंसान इस स्वतंत्रता को सहन करने में असमर्थ है। गलत व्यवहार गलत है, भले ही दुनिया उसके सही होने पर एकमत हो जाए। यह एकमात्र सत्य और वास्तविकता है कि नैतिकता सापेक्ष नहीं है और समय या स्थान के साथ बदलती नहीं है।

व्यवस्था : एक व्यापक (अनियत) सत्य की अनुपस्थिति अराजकता की ओर ले जाती है।

उदाहरण स्वरूप, यदि गुरुत्वाकर्षण का नियम एक वैज्ञानिक सत्य नहीं होता, तो हम एक ही स्थान पर खड़े होने या बैठने पर तब तक निश्चित नहीं होते, जब तक कि हम फिर से हिल नहीं जाते और हम इस बात पर निश्चित नहीं होते कि हर बार एक और एक का योग दो होता है। सभ्यता पर इसका प्रभाव गंभीर होता, विज्ञान और भौतिकी के नियम महत्वहीन हो जाते और लोगों के लिए खरीद-बिक्री का काम करना असंभव हो जाता।

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