क्या इस्लाम ने स्त्रियों के लिए पुरुषों के साथ बराबरी सुनिश्चित की है?

मुस्लिम महिलाएं न्याय चाहती हैं, समानता नहीं। पुरुषों के साथ समानता से वह अपने कई अधिकारों और विशेषताओं को खो देंगी। मान लीजिए किसी व्यक्ति के दो पुत्र हैं। उनमें से एक की उम्र पांच साल और दूसरे की उम्र अठारह साल है। वह व्यक्ति दोनों के लिए एक-एक शर्ट खरीदना चाहता है। अब यहाँ समानता उसी स्थिति में प्राप्त होगी जब दोनों शर्ट एक ही माप की खरीदी जाए, जो दोनों के लिए परेशानी का कारण बनेगा। लेकिन न्याय यह है कि उनमें से प्रत्येक के लिए उचित माप की शर्ट खरीदी जाए। इस प्रकार दोनों खुश हो जाएँगे।

इस समय महिलाएं यह साबित करने की कोशिश कर रही हैं कि वे वह सब कुछ कर सकती हैं जो एक पुरुष कर सकता है। जबकि, वास्तव में महिलाएं इस स्थिति में अपनी विशिष्टता और विशेषाधिकार दोनों खो देती हैं। अल्लाह ने उन्हें वह करने के लिए बनाया है, जो कोई पुरुष नहीं कर सकता है। यह साबित हो चुका है कि प्रसव और प्रसव पीड़ा सबसे गंभीर पीड़ाओं में से एक है। इस परेशानी के बदले धर्म महिलाओं को आवश्यक सम्मान देने आया है। उसे गुजारा भत्ता और काम की ज़िम्मेदारी न लेने का अधिकार देता है, यहां तक कि उसके पति को यह अधिकार नहीं कि पत्नी के निजी धन में अपना हिस्सा तक लगाए, जैसा कि पश्चिम में करते हैं। दूसरी तरफ़ अल्लाह ने आदमी को बच्चे के जन्म के दर्द को सहन करने की ताकत नहीं दी है। लेकिन, उदाहरण के तौर पर उसने उसे पहाड़ों पर चढ़ने की क्षमता दी है।

अगर एक महिला को पहाड़ों पर चढ़ना, काम करना और मेहनत करना पसंद हो और वह दावा करती हो कि वह एक पुरुष की तरह ही ऐसा कर सकती है, तो वह ऐसा करती तो है, लेकिन अंत में, उसी को बच्चों को जन्म भी देना होगा, उनकी देख-भाल भी करनी होगी एवं उन्हें दूध भी पिलाना होगा। क्योंकि मर्द यह काम किसी भी स्थिति में नहीं कर सकता है। यह औरत पर दोहरा बोझ होगा, जिससे वह बच सकती थी।

इस तथ्य को बहुत-से लोग नहीं जानते हैं कि जब कोई मुस्लिम महिला संयुक्त राष्ट्र के माध्यम से अपने अधिकारों की माँग करती है और इस्लाम में मिले अपने अधिकारों को त्याग देना चाहती है, तो नुक़सान उसी का होता है। इसलिए कि उसे इस्लाम में अधिक अधिकार प्राप्त हैं। इस्लाम उस एकीकरण को प्राप्त करता है, जिसके लिए पुरुष और महिला को बनाया गया है, जो सभी को खुशी प्रदान करता है।

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